क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय
यह उत्तराध्यान आगम का छटा अध्याय है और इसकी 18 गाथाएं है,प्रभु महावीर ने निर्वाण से पूर्व प्रवचन करते हुये विद्या और ग्यान में अन्तर बतलाया है कि सांसारिक विद्या जीव को मुक्ति नहीं दिलवा सकती और ग्यान भी आचरण के बिना शून्य है।
साधक को समझा रहें है कि अपने कृत कर्मों से माँ-बाप, भाई-बहन,पति/पत्नि,हट-हवेलियां एवं अन्य प्रकार के साधन भी मुक्ति नहीं दिलवा सकती। आत्म चिंतन ही मुक्ति का साधन है।
माया पिया ण्हुसा भाया,भज्जा पुत्ता य ओरसा। नालं ते मम ताणाय,लुप्पन्तस्स सकम्मणा।।
क्षुल्लक साधुता के बाह्याचार, और जैन दिगाम्बर परम्परा मे वैराग्य और साधु के बीच की अवस्था है,श्वेताम्बर (मन्दिर मार्गीय और स्थानकवासी) परम्परा में वैराग्य से सीधा पाठ पढ़ाकर, उसे छोटी दीक्षा और कुछ दिनोॆ के बाद पाठ पढ़ाकर साधु कहा जाता है। निर्गन्थ केवल जैन साधुओं को ही कहा गया है कि किसी प्रकार के वैर-विरोध से पड़ी हुयी गांठे न रखें, यहां तक किसी सन्त को स्वप्न में किसी से कुछ कहा-सुनी हो गई है तो वह सुबह उठते ही पहले उस से क्षमायाचना करें, फिर मल विसर्जन एवं लघु-शंका के लिये प्रस्थान करे जिससे मन में गांठ न रहे, आजकल देश में खुलें में मल विसर्जनीय अपराध है, सन्त को भी राज्य व्यवस्था का सम्मान करना है।
अग्य कौन है और विद्वान कौन, जो दुःख के मूल कारण को न समझे या समझते हुए भी उससे मुक्त होने का प्रयास न करे वह अग्यानी है और विद्वान भी नहीं।
मूंड- मुंडाये तीन गुण, सिर की मिट गई खाज, खाने को लड्डू मिले लोग कहें महाराज ।।
जो ग्यान को आचरण में लाये वही विद्वान है, सांसारिक विद्या से विवेकहीन होना अग्यान है। इस अन्तहीन संसार में साधु को अपने चारों ओर सावधान होकर चलना है।
साधु जीवन कठिन है, जैसे पेड़ खजूर, चड़े तो चाखे प्रेम रस, गिरेे तो चकनाचूर ।।
अविद्या का अर्थ है सत्य के विपरीत नालेज, अविद्या चार प्रकार की होती है , अनित्य में नित्य की अनभूति, यौवन, तन, मन, धन, स्वजन, स्नेही, मित्र, घर, भौतिक सुख -सम्पदा को नित्य मानना ही अविद्या है।
अशुचि में शुचि की अनुभूति, शरीर स्वयं अशुद्ध है, इसकी उत्पति अशुद्ध पदार्थों से हुई है, फिर भी इसको शुद्ध समझऩा अविद्या है।
स्त्री और परिग्रह का मोह जाल में रहना दुःख का कारण में सुख समझना ही अविद्या है ।
जो वस्तु परलोक में जाने वाली नहीं, उस को अपना समझऩा ही अविद्या है ।
विद्या वही है जो आठों कर्मों से मुक्त करवाए। भावना में शुक्ल लेश्या रहें कि अन्तिम समय संथारा हो जाय। क्रोध में मरण -मारन तक आए कृष्ण लेश्या, झूठ -चोरी नील लेश्या, काम-वासना में लिप्त कामुक्ता, तप करने की भावना तेजो लैश्या, पद्म लेश्या, वैर-विरोध तजना शुक्ल लश्या में पहुंचने का भाव है।
नमि प्रवज्या
On Fri, 10 Nov, 2023, 15:00 Swatantar Jain, wrote:
नमि प्रवज्जया यह भगवान महावीर की अन्तिम देशना का नौवां अधयाय है। नमि जिसके आगे सब झुक जाये, दीक्षा,संन्यास और प्रवज्जया का अर्थ एक ही है परन्तु कुछ अन्तर है दीक्षा- शिक्षा से ग्रहण किया उसे व्रत के रुप में धारण करना, संन्यास- काम,क्रोध विषय विकारो को त्याग कर सत्य की खोज करना, प्रवज्जया- अपना सब कुछ त्याग कर परिवार, भाई-बहन, मां-बाप धन दौलत, जमीन-जायदाद त्याग कर आत्मा में रमण करना,जैसे जैन सन्त-साध्वियां, इस अध्याय की 62 गाथाएं है, जिसका सार इस प्रकार है।
भारत में अवन्ति जनपद में सुदर्शन नाम का नगर जहां मणिरथ नाम का राजा राज्य करता था,उसका भाई था युगबाहू की पत्नि थी जो तप,संयम की अऱाधना करती थी,और अति सुन्दर थी, मणिरथ कुदृष्टि से मन विकरों में उलझकर प्रालोभन देने लगा निष्फल होने से उसने विचार किया कि बीच का रोढ़ा ही समाप्त कर दिया जाय, जब वह दोनो विश्राम कर रहे थे तो रात्री के अन्धेरे में मणिरथ ने अवाज लगायी,युगबाहू मुझे प्यास लगी है पानी दे जा,युगबाहू जाने लगा,मदनरेखा रोकना चाही परन्तु युगबाहू भाई के प्रेमवश, पानी का लोटा लेकर गया तो पानी पकड़ कर तलवार से वार कर दिया गर्दन लुड़क गयी और चिल्लाया, मणिरथ घोड़े पर सवार होकर जंगल में दूर निकल गया और चीख सुनकर मदनरेखा गयी और युगबाहू को कमरे में ले आई और कहने लगी मौत तेरे पास खड़ी है अपनी भावना न बिगड़ने दे 18 पपों का त्यागकर संयम धारण कर और इतने में मरकर पंचवे देवलोक में देव हुआ। मणिरथ के घोड़े के पांव सर्प की पूंछ पर पड़ गया जो उछल कर मणिरथ को डंक मारा जिससे वह मरकर पांचवे नरक में गया मदनरेखा गर्भवती ने विचार किया कि अब महल में नहीं रहना और जंगलों में चली गयी, वहीं के फल-फरूट खाकर निर्वाह करने लगी, समय आने पर सरोवर के किनारे लड़के को जन्म दिया, साड़ी का पल्लू फाड़ कर उसमें रख कर वृक्ष से बांध दिया और अपनी सफाई के लिये सरोवर में कूद गई, वहां एक जलहस्ती ने सूंड से उछालकर सरोवर से बाहर किया, उसी समय मणिप्रभ नामक विद्याधर आकाश मार्ग से विमान द्वारा कहीं जा रहा था, करुणावश मदनरेखा को आकाश में पकड़ कर बैठा लिया और विमान को वापिस मोड़ लिया, मदनरेखा ने युक्ति से पूछा आप वापिस क्यों जा रहे हो,मणिप्रभ कहने लगा मेरे पिता चार ग्यान के धारक साधु है उनके दर्शन करने जा रहा था, आपके रूप लावन्य को देखकर मेरा मन चाहता है कि पहले तुम्हें अपने महल ले चलूं, फिर कभी दर्शन कर लूंगा।अवसर देखकर मदनरेखा कहने लगी, मुझे भी दर्शन करवा दो,मणिप्रभ ने विचार किया नारी की बात मानने से नारी भी सहमत हो सकती है, दोनों गुरुमहाराज के दर्शन करने पहंच गये, गुरुमहाराज के प्रवचन सुनने से मणिप्रभ के विचार ही बदल गये,कि एक देव प्रकट हुआ और पहले मदनरेखा को वन्दना की बाद में गुरु महाराज को, मणिप्रभ ,यह क्या, गुरुमहाराज ने फरमाया यह युगबाहू है,मदनरेखा के सदोपदेश के कारण यह देवलोक में देव हुआ, मदनरेखा ने गुरुदेव से कहा, मेरा बच्चा,-गुरुदेव- मिथिला नरेश वनक्रीड़ा करने आया था, निसन्तान था, उसने बच्चे को महारानी की गौद में रखदिया, वह राजसी सुख भोग रहा है, बालक के महल मे आने से सभी दुशमन राजा की शरण में आ गये, इसलिए नाम रखा नमि, देव बोला- मेरे लायक कोई सेेवा- मदनरेखा ने कहा- मैं दीक्षा लेना चाहती हूं, देव ने साध्वी के पास पहुंचा दिया मदनरेख को, वहां वह दीक्षा लेकर साधना में लीन हो गई।
नमि युवा हो गया,108 राजकुमारियों कै साथ विवाह हुआ और राज्य का प्रबन्ध बड़ी कुशलता से करने लगा कि नरेश ने नमि को राज्य का उत्तराधिकार सौंपकर परव्रज्या ग्रहण कर तप संयम की साधना कर मोक्ष प्राप्त किया।
एकबार नमि की हस्तिबल से सफेद हाथी मस्त होकर किसी दूसरे राज्य में चला गया, वहां का राजा था चन्द्रयश। नमि ने वहां दूत भेजा, मेरा हाथी लौटा दो, चन्द्रयश ने कहा, क्या तुम्हारे राजा को राजनीति नहीं आती, हाथी स्वयं चलकर आया है, जिससे वह हमारा हो गया है ।
नमि की बात न मानने पर विरोध बड़ गया युद्ध की नौबत आ गई, युद्धक्षैत्र मैं सेनांये आमने- सामने थी कि मदनरेखा ने अवधिग्यन मे देखा रक्तपात हो जायेगा,गुरुणी से परामर्श कर युद्ध मैदान दोनों सैनाओं के बीच खड़ी हो गयी, नमि और चन्द्रयश ने प्रणाम किया और कहा,माँ तुम कैसे,
मदनरेखा ने चम्द्रयश से कहा- नमि तुम्हारा छोटा भाई है,युद्ध करना शोभा नहीं देता, नमि से कहा-बड़े भाई से युद्ध, सुनते ही दोनों गले मिले, चन्द्रयश ने कहा-हाथी क्या मैं सारा राज्य नमि को सौंप कर दीक्षा,ग्रहण करता हूं।
नमि अब दो देशों का राज्य प्रबन्ध बड़ी कुशलता से करने लगा कि नमि को रोग हो गया,वैद्यों ने कहा इसका ईलाज गौशीर्षचन्दन का लेप है, जिससे 108 रानियां चन्दन रगड़ने लगी और हाथों में पहनी हुई चूड़िया खड़कने की आवाज से जो शोर उत्पन्न हुआ ,महाराज को आशान्त करने लगा, महाराज नमि ने कहा- मन्त्री जी शोर कैसा, मन्त्री- महाराज रानियां चन्दन रगड़ रहीं है,उनके हाथों में पहनी हुई चूड़ियों की आवाज है, मन्त्री रानियों के पास जाकर महराज की आशान्ती की बात कही, रनियों ने चूड़िया उतार दी केवल एक-एक चूड़ी रखी जिससे आवाज खड़कने की बन्द हो गई।
महाराज-मन्त्री जी क्या चन्दन रगड़ना बन्द हो गया, मेरै ईलाज की कोई प्रवाह नहीं, नहीं महाराज चन्दन रगड़ा जा रहा है, शोर कम करने के लिये रानियों ने केवल एक चूड़ी पहन कर रगड़ रही है ।
महाराज अच्छा एक-दो का चक्र है आत्मा और शरीर विचार करते नींद आ गई, स्वप्न देखते है सातवें देवलोक का दृश्य, नींद खुली, यह दृश्य कहीं देखा है कि रोग गायब हो गया और जतिस्मरण ग्यान से वैराग्य हो गया, बड़े पुत्र को राज्य सौंप कर दीक्षित हो गये, कि ईन्द्र का सिंहासन डोल गया, ब्राह्मण का रुप धारण कर नमि से दस प्रश्न किये कि नमि संन्यास से अस्थिर हो जाय, परन्तु नमि ने दृड़ता से उत्तर दिये, जिससे ईन्द्र अपने रुप में आकर अणगार नमि को वन्दन कर लौट गया।